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आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कै रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒रश्व॑पर्णैः। आ वर्षि॑ष्ठया न इ॒षा वयो॒ न प॑प्तता सुमायाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vidyunmadbhir marutaḥ svarkai rathebhir yāta ṛṣṭimadbhir aśvaparṇaiḥ | ā varṣiṣṭhayā na iṣā vayo na paptatā sumāyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वि॒द्युन्म॑त्ऽभिः। म॒रु॒तः॒। सु॒ऽअ॒र्कैः। रथे॑भिः। या॒त॒। ऋ॒ष्टि॒मत्ऽभिः॑। अश्व॑ऽपर्णैः। आ। वर्षि॑ष्ठया। नः॒। इ॒षा। वयः॑। न। प॒प्त॒त॒। सु॒ऽमा॒याः॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:88» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः मन्त्रोंवाले अठासीवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से फिर भी सभाध्यक्ष आदि का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुमायाः) उत्तम बुद्धिवाले (मरुतः) सभाध्यक्ष वा प्रजा पुरुषो ! तुम (नः) हमारे (वर्षिष्ठया) अत्यन्त बुढ़ापे से (इषा) उत्तम अन्न आदि पदार्थों (स्वर्कैः) श्रेष्ठ विचारवाले विद्वानों (ऋष्टिमद्भिः) तारविद्या में चलाने अर्थ डण्डे और शस्त्रास्त्र (अश्वपर्णैः) अग्नि आदि पदार्थरूपी घोड़ों के गमन के साथ वर्तमान (विद्युन्मद्भिः) जिनमें कि तार बिजली हैं, उन (रथेभिः) विमान आदि रथों से (वयः) पक्षियों के (न) समान (पप्तत) उड़ जाओ (आ) उड़ आओ (यात) जाओ (आ) आओ ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे पखेरू ऊपर-नीचे आके चाहे हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को सुख से जाते हैं, वैसे अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए तारविद्या प्रयोग से चलाये हुए विमान आदि यानों से आकाश और भूमि वा जल में अच्छे प्रकार जा-आके अभीष्ट देशों को सुख से जा-आके अपने कार्य्यों को सिद्ध करके निरन्तर सुख को प्राप्त हों ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पूर्वोक्तसभाध्यक्षादिपुरुषाणां कृत्यमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे सुमाया मरुतः सभाध्यक्षप्रजापुरुषा ! यूयं नोऽस्माकं वर्षिष्ठयेषा पूर्णैः स्वर्कैर्ऋष्टिमद्भिरश्वपर्णैर्विद्युन्मद्भी रथेभिर्वयो न पप्ततापप्तत यातायात ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) अभितः (विद्युन्मद्भिः) तारयन्त्रादिसंबद्धा विद्युतो विद्यन्ते येषु तैः (मरुतः) सभाध्यक्षप्रजा मनुष्याः (स्वर्कैः) शोभना अर्का मन्त्रा विचारा वा देवा विद्वांसो येषु तैः। (रथेभिः) विमानादिभिर्यानैः (यात) गच्छत (ऋष्टिमद्भिः) कलाभ्रामणार्थयष्टिशस्त्रास्त्रादियुक्तैः (अश्वपर्णैः) अग्न्यादीनामश्वानां पतनैः सह वर्त्तमानैः (आ) समन्तात् (वर्षिष्ठया) अतिशयेन वृद्धया (नः) अस्माकम् (इषा) उत्तमान्नादिसमूहेन (वयः) पक्षिणः (न) इव (पप्तत) उत्पतत (सुमायाः) शोभना माया प्रज्ञा येषाम्, तत्सम्बुद्धौ ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा पक्षिण उपर्यधः सङ्गत्याऽभीष्टं देशान्तरं सुखेन गच्छन्त्यागच्छन्ति तथैव सुसाधितैस्तडित्तारयन्त्रैर्विमानादिभिर्यानैरुपर्यधः समागमनेनाभीष्टान् समाचरान् वा देशान् सुखेन गत्वागत्य स्वकार्य्याणि संसाध्य सततं सुखयितव्यम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात माणसांना विद्यासिद्धीसाठी अध्ययन, अध्यापनाची रीत सांगितलेली आहे. त्यामुळे या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पक्षी आकाशात वर खाली उडून एका स्थानापासून दुसऱ्या स्थानी स्वच्छंदपणे विहार करतात तसे चांगल्या प्रकारे तयार केलेल्या तारविद्यायुक्त विमान इत्यादी यानाद्वारे आकाश, भूमी व जलामध्ये जाणे येणे करून अभीष्ट स्थानी पोचून आपले कार्य सिद्ध करावे व निरंतर सुख भोगावे. ॥ १ ॥