आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कै रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒रश्व॑पर्णैः। आ वर्षि॑ष्ठया न इ॒षा वयो॒ न प॑प्तता सुमायाः ॥
ā vidyunmadbhir marutaḥ svarkai rathebhir yāta ṛṣṭimadbhir aśvaparṇaiḥ | ā varṣiṣṭhayā na iṣā vayo na paptatā sumāyāḥ ||
आ। वि॒द्युन्म॑त्ऽभिः। म॒रु॒तः॒। सु॒ऽअ॒र्कैः। रथे॑भिः। या॒त॒। ऋ॒ष्टि॒मत्ऽभिः॑। अश्व॑ऽपर्णैः। आ। वर्षि॑ष्ठया। नः॒। इ॒षा। वयः॑। न। प॒प्त॒त॒। सु॒ऽमा॒याः॒ ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः मन्त्रोंवाले अठासीवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से फिर भी सभाध्यक्ष आदि का उपदेश किया है ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः पूर्वोक्तसभाध्यक्षादिपुरुषाणां कृत्यमुपदिश्यते ॥
हे सुमाया मरुतः सभाध्यक्षप्रजापुरुषा ! यूयं नोऽस्माकं वर्षिष्ठयेषा पूर्णैः स्वर्कैर्ऋष्टिमद्भिरश्वपर्णैर्विद्युन्मद्भी रथेभिर्वयो न पप्ततापप्तत यातायात ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात माणसांना विद्यासिद्धीसाठी अध्ययन, अध्यापनाची रीत सांगितलेली आहे. त्यामुळे या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥